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इस किताब के प्रथम अध्याय में बिहार और झारखंड की प्राथमिक शिक्षा, सर्वशिक्षा और साक्षरता के संदर्भ में दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं। दूसरे अध्याय में झारखंड के अनुसूचित जनजातीय आवासीय विद्यालयों का मूल्यांकन है। तीसरा अध्याय में बालिका शिक्षा के सार्वजनीकरण की दशा-दिशा से संबंधित है। चौथे अध्याय में कुकुरमुत्तों जैसे फैलते निजी स्कूलों की तस्वीर है। पांचवे अध्याय में बिहार के प्राथमिक शिक्षा के सच का उल्लेख है तो आखिरी अध्याय में झारखंड में प्रचलित सहभागी प्राथमिक शिक्षा प्रबंधन में ग्राम शिक्षा समितियों की भूमि का आकलन है।

यह पुस्तक एक रिपोर्ट है, जो क्रेज, झारखंड के सर्वेक्षण व विश्लेषण पर आधरित है। इस रिपोर्ट में झारखंड में जो स्कूली शिक्षा प्रणाली है, उसकी मौजूदा स्थिति की संतुलित समीक्षा की गई है। इसमें यह विचार विमर्श है कि आखिर मौजूदा निराशाजनक परिस्थति क्यों बन रही और यह बताने की कोशिश भी है कि इसमें सुधार लाने के लिये क्या किया जा सकता है।

रेणुका वर्मा के इस कविता-संग्रह में बचपन की केवल स्मृतियाँ नहीं हैं। वे एक बार ‍िफर से अपने बचपन में लौटकर अपनी स्मृतियों के सहारे उन बिम्बों, रंगों एवं दृश्यों को सहज-सरल, संप्रेषणीय एवं लययुक्त भाषा में प्रस्तुत करती हैं, जो उनसे छूट चुके हैं। ये कविताएं किसी भी रूप में किसी वयस्क, परिपक्व एवं चिंतनशील व्यक्ति द्वारा रचित होने का अहसास नहीं कराती हैं और यही इन कविताओं की अपनी विशेषता है। बाल मन में प्रवेश कर लिखी गयी इन कविताओं का विषय धर्ती से आकाश तक फैला हुआ है, जहां हरियाली और इन्द्रध्नुष है। यहां इतिहास नहीं, भूगोल और वर्तमान है। सरल, सहज, सुंदर और चमकदार कविताएं। बच्चों का संसार असीमित है। वह इन्द्रधनुष का सतरंगा संसार है। स्वभाविक है इस संसार में कोयल, मैना, तोता, बुलबुल, मोर, पपीहा, मेढक, सियार, बिल्ली, खरगोश, चूहा और हाथी दादा हो। मुनष्य के संसार में जब पशु-पक्षी, प्रकृति, वन-जंगल, गीत-संगीत नहीं हो, तो वह संसार ऊपर से जितना चमकीला दिखाई दे, भीतर से काला और बदरंग होता है।

शिक्षा मुक्ति कि प्रक्रिया के रूप में इन देशों में अपनी परंपरा का आधुनिकीकरण करना में सफल रही है तथा इन देशों ने लोगों को अपनी विरासत के सहारे समर्जीवाद के खिलाफ महान योद्धा के बतौर खड़ा कर दिया है। भारत को भी इससे बहुत कुछ सीखने कि जरूरत है क्योंकि शिक्षा को जब तक क्रांतिकारी परियोजना नहीं बनाया जाएगा और सभी समाजों, संस्कृतियों एवं क्षेत्रों कि विशिष्टताओं के अनुरूप उसे नहीं गढ़ जाएगा वर्तमान फासीवादी-साम्राज्यवादी हमले का सामना करना संभव होगा। इन्हीं दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए संवाद ने 'शिक्षा : मुक्ति विमर्श' नामक यह पुस्तक प्रकाशित किया है ताकि व्यापक स्तर पर बहस को दिशा देने में तमाम तरह के जनतान्त्रिक पहलुओं को समाहित किया जाए।

प्राचीन काल से ही झारखण्ड अपना स्व-शासन एवं स्व-राज रहा है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में उनकी इस वयवस्था को तोड़ने का प्रयास किया गया। इसके जवाब में आदिवासियों के सशस्त्र संघर्ष की श्रृंखला का इतिहास पढ़ने-सुनने को मिलता है।

झारखंड में स्वशासन, स्वायत्तता और सांस्कृतिक अस्मिता की लड़ाई सदियों से जारी है। झारखंड राज्य गठन के बाद तो यह संघर्ष और भी तेज हो गया है क्योंकि लोगों की आकांक्षाएं टूट गयी हैं। लोग निराश हैं तथा एक 'लंबी छलांग' की तैयारी भी कर रहे हैं। स्वशासन की लोकतांत्रिक चेतना इसे प्रेरित करता है। झारखंड समाज की बुनियादी आधार समानता है। सामुदायिकता, स्त्री-पुरुष समानता और देशज जनतंत्रा इसे विशिष्ट बनाते हैं। एक स्वशासी समाज बाल-अधिकारों की हिफाजत करती है तथा वकालत भी। आज सारी दुनिया में बाल-अधिकारों के लिए संघर्ष तेज है। लोकतंत्र के लिए इसे जरूरी माना जा रहा है। आज जरूरत है कि वैश्विक स्तर जारी बाल-अधिकार दस्तावेज से हम खुद अवगत हों तथा अपने आस-पास के लोगों को भी अवगत कराएं। देशज जनतांत्रिक स्वशासन इस दिशा में आगे बढ़कर अपनी भूमिका का निर्वाह करेगा।

पारंपिक तौर पर भारत में खेतीबारी को आजीविका का सर्वोत्तम साधन मन गया है। 'उत्तम खेती, मध्यम बान /अधम चाकरी, भीख निदान 'हमारे बुजुर्ग यही सूक्ति बार-बार दोहराया करते थे। परन्तु उस वक़्त मौसम का मिजाज बदला नहीं था। समय पर नियमित वर्षा होती थी और उसी अनुरूप खेतीबारी भी होती थी।

जैविक खेती कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है।[सन् 1990 के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफ़ी बढ़ा है।]

इस पुस्तक में बिहार के चंपारण जिले में गांधी के पहले राजनैतिक हस्तक्षेप के बाद भारत के किसानों के अधिकारों के लिए लड़ने में कई महीने लग गए - यह सौ साल हो गए हैं। लेकिन गांधी चंपारण कैसे आए?

डॉ. रोज केरकेट्‌टा के कथा संग्रह 'पगहा जोरी-जोरी रे घाटो' झारखंडी जनमानस सहित नारी संवेदना कि अनूठी अभिव्यक्ति का ताजातरीन दस्तावेज है। हर्ष है कि झारखंड के दो विश्वविद्यालयों, रांची विश्वविद्यालय एवं विनोबा भावे विश्वविद्यालय ने इस कथा संग्रह को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने कि अनुशंसा कि है। प्रस्तुत पुस्तिका कथा संग्रह कि कथाओं पर देश व राज्य के जानेमने साहित्यकारों व समीक्षकों के विचारों का संकलन है जो उन्होंने कथा संग्रह के लोकार्पण के अवसर पर रांची में व्यक्त किए थे।

उन लाखो-करोड़ो लोगो को जो आज भी अपने स्वशासन स्वालम्बन और स्वाभिमान की रक्षा की लिए आजीविका, आजादी आनंद के औज़ार से नै दुनिया गढ़ने को सरजोम की तरह अड़े और खड़े है - संघर्ष के मैदान में।

जलवायु संकट आज की दुनिया के बड़े संकटों में से एक है। इसके समाधान के लिए पूरी दुनिया की सरकारें, यू.एन. जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं तथा अन्य स्वैच्छिक संस्थाएं न सिर्फ चिंतित हैं बल्कि चिंतनरत भी हैं। चिंतन का यह दौर पिछले ढाई दशक से जारी है बावजूद इसके संकट घटने के मुकाबले बढ़ता ही जा रहा है। क्यों हो रहा है ऐसा? क्या चिंतन की दशा और दिशा में तो कहीं दोष नहीं है? उक्त प्रश्नों पर विचार करने से पूर्व यह विचार करना जरूरी लगता है कि जलवायु संकट के लिए जिम्मेवार कारकों को क्या हमने पहचानने की कोशिश की है? क्या महज विकसित देशों के नजरिये और कथित वैज्ञानिक ढंग से देखने को पहचानना माना जाएगा या फिर इसे और गंभीरता से समझने की जरूरत है?

The climate crisis is one of the world's biggest issues. Governments of the whole world, international organizations like United Nations and other voluntary organizations are not only worried about but also thinking for its solution. This period of contemplation has been going on for the last two decades, yet this crisis is increasing instead of decreasing. Why is such happening? Is there any fault in the conditions and direction of contemplation? Before considering the questions, it seems necessarily to be considered that, but such was not done to identify the factors responsible for the climate crisis? We have the point of view of developed countries and the so-called scientific way of seeing be considered identity or does it need to be understood more seriously.